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शुक्र है... / सुभाष नीरव
Kavita Kosh से
शुक्र है-
निरन्तर बढ़ रहे इस विषाक्त वातावरण में
बची हुई है, थोड़ी-सी प्राणवायु।
शुक्र है-
कागज और प्लास्टिक की संस्कृति में
बचा रखी है फूलों ने अपनी सुगन्धि
पेड़ों ने नहीं छोड़ी अपनी ज़मीन
नहीं छोड़ा अपना धर्म
स्वार्थ में डूबी इस दुनिया में।
बेईमान और भ्रष्ट लोगों की भीड़ में
शुक्र है-
बचा हुआ है थोड़ा-सा ईमान
थोड़ी-सी सच्चाई
थोड़ी-सी नेकदिली।
शुक्र और राहत की बात है
इस युध्दप्रेमी और तानाशाही समय में
बची हुई है थोड़ी-सी शांति
बचा हुआ है थोड़ा-सा प्रेम
और
अंधेरों की भयंकर साजिशों के बावजूद
प्रकाश अभी जिन्दा है।
एक बेहतर दुनिया के लिए
थोड़ी-सी बची इन अच्छी चीजों को
बचाना है हमें-तुम्हें मिलकर
भले ही हम हैं थोड़े–से लोग !