श्मशान में मां / योगेंद्र कृष्णा
सिर्फ़ हमारा ही नहीं
उनका भी निस्काम देखो
जो तुम्हें नहीं जानतीं
फिर भी तुम्हारे लिए
तुम्हारे साथ जलकर राख हो रही हैं
वे ढेर सारी लकड़ियां
अंत तक तुम्हारी देह से
मिलकर एक हो रही हैं
राख में राख
क्या अलग कर पाएंगे हम
लकड़ी और देह की राख
धू-धू कर जलती चिताएं हैं
आकाश में उठता काला धुआं
और रात्रि की भयावह नीरवता
को चीरती घाट की सीढियों से
नीचे उतरतीं कुछ आवाज़ें हैं
असमय एक युवा देह को
तलाश है मिट्टी की
और फिर
सफ़ेद कपड़े में लपेटे
एक शिशु को दोनो हाथों मे उठाए
उतरता है एक युवक
साथ में और भी कई लोग
पर उतने भी नहीं
जितने कि होने चाहिए
दुःख की इस बीहड़ घड़ी में
और घाट की सीढियों से
उतरता है पीछे-पीछे
भारी पत्थर का एक बड़ा-सा टुकड़ा
बिलकुल अंधेरे में
गंगा तट की तरफ़
पानी के बड़े बुलबुले
छूटने-सी आवाज़
अर्द्ध-रात्रि की बीहड़ बेबस
खामोशी को
हल्के से हिलाती है
छोड़ दिए गए हैं
पत्थर और शिशु-देह
कुछ दिनों के लिए
एक दूसरे के साथ
निबद्ध रहने के करार पर
श्मशान घाट तक आने में
कितना वजन था
हमारे कंधों पर
लेकिन नहीं था
फिर भी कोई भार
और अब जबकि लौट रहा हूं
लेकर मुट्ठी भर तुम्हारी राख
क्यों दब रहा है मन इसके भार से
जैसे कि पत्थर हो कोई
बंधा हुआ मेरी ही देह से…