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संगीत : एक / कुबेरदत्त

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कहाँ से आ रहा है संगीत यह?
शेल्फ़ में अँटी, धूल-सनी
किताबों में सम्भावनाएँ भरता हुआ....
            यह संगीत कहां से आ रहा है...?

दिशाओं के
श्वेत परदों पर उभरने लगीं
सपनों में देखे सच की शक्ल...
मैले-चीकट चेहरों पर नाचने लगे
                     जुगनू...
खण्डहरों में धूनी रमा रहे हैं
                बिस्मिल्ला खाँ...
भूतकाल के लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
खलास-बदहवास आकृतियों में
          उभरने लगे हाथ पैर सिर
                       अभियान...

अकादमियों की कारा से
मुक्त होकर दौड़ पड़े रचनाकार
विस्तृत मैदानों में
साँस लेते खुलकर
हवाओं को आलिंगनबद्ध करते....
          मुक्तिकामी रचनाओं का
          चुम्बन लेते, चुम्बन देते....
जादू कर रहा है संगीत यह...

खुल रही है बस्ती की
          डरी दुबकी खिड़कियाँ
          सड़कों पर जुट रहे हैं लोग
          शिरस्त्रान कस रही हैं राजधानियाँ
          रक्षाकवच पहन रहे हैं भद्रजन....
चाबुक खाई माँओं की गोद में
लोरियां सुनते
         शिशु
         उठ बैठे हैं
         सीख रहे हैं जल्दी-जल्दी चलना

मौसम के तमाम
आदिम अर्थ लेकर
इतिहास की लावारिस
काली-सफ़ेद सुर्ख़ियाँ लेकर
आँसुओं के सूर्यमुखी लेकर
जड़ आत्माओं के विलुप्त गीत लेकर
और
मेरे समय के आधे हरे, आधे भरे
घावों को दुलराता
और
मेरे समय के शब्दों को
              अर्थवान करता....
और
करता हुआ हज़ारों सुराख़
               अन्धेरे की दीवार में
               यह संगीत...
               आख़िर
               कहाँ से आ रहा है?