संगी / कुमार वीरेन्द्र
जब आँखें छपाका मार धो लेते
पूछते, ‘का जी
अब सब ठीक'; पता नहीं आँखें क्या 
कहतीं, जो मुस्काते, मुँह पोंछने लगते; जब खेत में कुदारी चलाते, थक जाते, बाँध पर छाँह में
अपने हाथों को निहारते बतियाते, ‘बस पाठा, बस अबकी बेर, सब कोनवा बराबर हो जाएगा'
और उन्हें चूमने लगते; बबुरबानी में खेत घूमते, गोड़ में काँट गड़ जाए, ‘ओहो' 
करते, मुझे काँधे से उतार देते, एके पाँव खड़े दूसरे पाँव का काँटा 
निकालते, ख़ून निकलने लगता, कहने लगते, ‘माफ़ कर 
दो, बाबू; का करूँ, खेत-बधार है, जानत हो
रखवारी ना हो, घोड़पड़ास तो 
चरेंगे ही, लोग मौक़ा   
भेंटते
उखाड़ ले जाएँगे बूँटवा; ए मोर भइया
माफ़ी देना'
और जिसमें काँटा चुभा उसकी धूल 
माथे लगा, मुझे बैठा काँधे, विचरने लगते; रात सोते बखत कपार, आँख, नाक, कान, मुँह, पेट, हाथ
गोड़ सबसे ऐसे बतियाते जैसे पुरान संगी हों, फिर ओठँग जब निश्चिन्त हो जाते, मैं हमेशा की तरह
घुमाने की बात मनवा उनकी पीठ, डाँड़ दबाने लगता; कबहुँ वे भी मेरे गोड़, काँधे 
दबाने लगते, रोकता, ‘हमार काहे दबा रहे हो, हम कवनो बाबा थोड़े...'
हरसते कहते, ‘अरे आज ना सही, कल बनोगे; दबा देता हूँ
कि ई गोड़वा मजबूत रहेंगे, तबहिं तो कल तोहरे 
काँधे मैं भी तनि घूम-फिर सकूँगा
ख़ाली खटिया प पड़े
पड़े ही
ना कटें दिन…!’
 
	
	

