संताप / शिव कुमार झा 'टिल्लू'
पांच बरख में जे किछु देलहुँ,
गोटे क्षण में ओ सभ लेलहुँ
ह'म आसिनक तीरा बनि झरलहुँ,
अहाँ चैती मोदक बनि परलहुँ
आत्म उत्ताप "संताप" भ' पसरल
देल अनर्गल अधोलांछन सं
विश्वाशक तुलसी विहुँसि गेली हे
भागि पड़एली सिनेहक प्रांगण सं
सुखल माँटि में केहेन पाँक ई
सबल मनोरथ केहेन फांक ई
गुद्दा संग आँठी फुटि गेलै
चहचह फ'र उपटल कानन सं
सिनेह नहि पसाही छल प्रियतम
दुर्गंधक लुत्ती हुरळक गमगम
बिनु वात बसातक ताग टुटल ई
ओझरायल बाँचल सभ लमसम
शेष भादवक प्रसून सेहन्तित
कतेक बरिस अहोरात्रि गमेलहुँ
एतेक लचलच नेह कतहु की?
भसकल गदरल देह कतहु की?
प्राण सेहो निकस' सं पहिने
हिचकी दैछ "छोड़ू माया" कहि-कहि
सकल मनोरथ झांझ बनलि हे
हिया केँ तप्पत तेल पकयलहुँ
टीस उठय अछि किए अनेरे
गुमानक कील सं मर्दित कयलहुँ
कहियो जे छल आत्म सुवासी
तकरा श्मसानक छाउर बनेलहुँ
आबहुँ ता संतोख करू हे
हम नीरक लेल नहि आहि मचेलहुँ
आब प्राण कंठ में क्षण-क्षण
विकल सिनेही स्वाती कण-कण
सात जनम धरि करब प्रतीक्षा
"संताप" फोरि क' जोरब हिअ मन
बिदकल बहुरल स्मृतिक संग
कोमल तरबा में फ़ार गरयलहुँ