सगळै हांफळरासै में / नन्द भारद्वाज
सैनरूप अगनी री झाळां उळींचतौ
ऊन्हाळू सूरज -
रूंखां रा लंफरा बाळतौ
चकरी ज्यूं घूमै आखै बरस
आपरी ठौड़
अर नवलख तारां रै बिच्चै पिरथी
जद पूरी कर लै आपरी परकमा,
म्हैं मुलक अर माटी रै साथै
सोधूं जीवण-जातरा रौ अरथ
जिकौ जोख्यां ई नीं लाधै
इण सगळै हांफळ-रासै में !
इण मुलक री माटी
बडी निमळी है
कंवळी है कसूंमल सरीखी
पण जाबक सूकी भी
यूं तौ राज रा पाटवी
इण माथै चालता सरमावै,
पण पांच-साला पट्टौ
कब्जै राखण खातर
वै मूंढै माथै मखमल-सी मुळकण ओढ
अणूतौ हरख दरसावता सांम्ही आवै
अर बिना किणी संकै-पिछतावै,
हळाबोळ फरमावै -
‘‘इण माटी में म्हांरौ जीव बसै रे !’’
अर इणी समचै
अेक-अेक सूं आला दळ
चौक्यां चढ-चढ ऊंचै सुर में
आपौ-आपरी कीरत गावै -
गांव-गळी में ढोल बजाव,ै
लोकराज री धजा उठायां -
राजनीत रा अै पाळेतू सांड
जद मरजी आ ऊभ गोरवैं
गाजै अर गरळावै आखी रात
अर करै आपरी इंदा-पूरण
सगळै हांफळ-रासै में
सांची इण हांफळ-रासै में !
ठाडै पौर में
मोटोड़ै पींपळ री चौकी बैठ
बोल्या प्रधानजी अणापेख लोगां सूं -
‘सुणो रे भायलां !
थांरी व्है मनस्या
अर आपणा पुरखां रौ पुन्न-परताप
तौ सैर सूं गांव तांई डामर करवाय लेवां!’
अर इती बात बोल्यां उपरांत
वै घणी ताळ मुळकता रह्या
सांम्ही बैठा मिनखां रा
उणियारां सांम्ही जोवतां निरापेख -
प्रधानजी रै अैलांण पछै
अेक ठाडी निस्कार छोडतां
धन्नै-बन्नै-कूंभै-भैरूं
हीयौ हेठौ कर अेकानी मेल दियौ
अर मनो-मन अरथ लगायौ -
आपणा मारग में पड़ता खेत
लागै अणलेखै बणसी खाद -
इण सगळै हांफळ-रासै में,
सांची, इण हांफळ-रासै में !
रोजीना
दिन ऊगै, बींसूंजै
पाछी रात हुवै -
कोई जद उठ जावै बंतळ बिचाळै
घर कांनी अणसार
तौ खीं-खीं हां-नां में
लारै उणरी बात हुवै -
अेक अेक रा बारी बारी
पोत खुलै,
चौड़ै आवै नवी नवी बातां
कीं कुचरीजै, कीं घाव कुळै,
अर करतां-नीं-करतां
परबारौ
गळ जावै आखी जूंण
इण सगळै हांफळ-रासै में
सांची, इण हांफळ-रासै में !
इण मुलक में
कठैई कीं ऊक-चूक तौ है,
पण खांमी फगत् किणी
अेक खूंणै री कोनीं,
आटै में किरकिर है
तौ नाज या घट़टी री पण व्हैला -
जाबक लूंणै री कोनीं !
सुधरण
सोधण रा जोगा साधन है,
ओपता मारग ई,
पण खुदरी जद ऊक-चूक में भेळप व्है
तौ किण दावै पूगां उण परली पार
इण उळझ्यै हांफळ-रासै में
सांची, इण हांफळ-रासै में !!
सितंबर, 1970