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सड़कवासी राम ! / हरीश भादानी

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सड़कवासी राम !
    न तेरा था कभी
    न तेरा है कहीं
रास्तों-दर-रास्तों पर
    पाँव के छापे लगाते ओ, अहेरी !
खोल कर मन के किवाड़े सुन,
    सुन कि सपने की
सपने की किसी
सम्भावना तक में नहीं
    तेरा अयोध्या धाम.....
सड़कवासी राम !


    सोच के सिर मौर
    ये दसियों दसानन
और लोहे की ये लंकाएँ
    कहाँ है क़ैद तेरी भूमिजा
खोजता थक देखता ही जा भले तू
    कौन देखेगा,
    सुनेगा कौन तुझको ?
थूक फिर तू क्यों बिलोये राम.....
सड़कवासी राम !


    इस सदी के ये स्वयम्भू
    एक रंग-कूंची छुआकर
आल्मारी में रखें दिन
    और चिमनी से निकाले शाम.....
सड़कवासी राम !


    पोर घिस-घिस क्या गिने
    चौदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प साँसों के गिने जा
        गिन कि कितने
        काट कर फैंके गए हैं
एषणाओं के जटायु ही जटायु
    और कोई भी नहीं
    संकल्प का सौमित्र
        अपनी धड़कनों के साथ
देख, वामन सी
    बड़ी यह जिन्दगी !
करदी गई है इस शहर के
    जंगलों के नाम.....


सड़कवासी राम !