भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सतवाणी (1) / कन्हैया लाल सेठिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1.
हुवै न सत् री परंपरा
सत अंतस रो बोध,
पीढी चालै असत री
तत नै समझ अबोध !

2.
रयो हुवै निज रो धणी
क्यां नै परण्यो पीव ?
नींद बेच क्यूं ओझको
लीन्यो भोळा जीव ?

3.
भेख धर्यां टोळै रज्यां
नाक घलैली नाथ,
चावै जै साख्यात तो
बण कर सही अनाथ,

4.
दीठ हुयां सत भाससी
निरथक भेख डफाण,
आंधै नै कोनी दिसै
धर्यो हथेळी भाण !

5.
नहीं भेख में दीठ में
संतपणै रो वास,
बिन्यां हुयां समदीठ सो
कात्यो पिन्यो कपास !

6.
थित गत रो समतोल है
ओ दिखतो संसार,
हूंतां पाण अतोल के
खिंडतां लागै बार ?

7.
मोटो समझै आप नै
जे तू धन रै पाण !
थारो चेतण बापड़ो
जड़ता लार पिछाण,

8.
घड़ी समझ जिण नै कसी
पूंचै पर मोट्यार,
सजड़ हथकड़ी काळ री
कैदी बण्यो लगा’र !

9.
कुदरत पालै बीज नै
फळ रो चोढै खोळ,
मिनख खोळ नै मोल लै
फैंकै तत अनमोल,

10.
सबद चळू कोनी सकै
असबद समद अळूंच,
कागद रो घट भर थकी
कलम चिड़ी री चूंच,