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सद्भावक आभा / आभा झा

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आदिकाल सँ आदिशक्ति केर
थिकहुँ अराधक हम मैथिल,
तदपि हृदय पट बन्न पड़ल अछि
ज्ञानक चक्षु लगैछ शिथिल।

पाठ अखंड करी जगदम्बक
दण्ड प्रणाम हमर थिक धर्म,
बाल स्वरूपा निश दिन पूजल
नहि परंच बूझल किछु मर्म।

खंडित-खंडित कएल गर्भ मे
आत्मजाक केलियनि निर्वाण,
जे ई नीच कर्म सँ बाँचथि
तनिका बेधल व्यंगक वाण।

भरि नवराति कुमारि खुआओल
आँजुर भरि-भरि उझलल प्रीति,
वैह जखन कुलवधू बनथि तऽ
उलहन-उत्पीड़न हो रीति।

कियो प्रताड़ित, कुंठित छथि तऽ
कियो विवश भऽ तेजलनि प्राण,
नीतिशास्त्र आ वेदसूक्ति मे...
मुदा बनल रहलीह महान।

पुस्तक धरि समटल मर्यादा
पर दारा पर करी मखौल,
बाट चलैत भेटैत नारि तऽ
उपमा दऽ-दऽ कयलहुँ चौल।

करी परिष्कृत आबहु उर कें
स्वस्थ समाजक हो निर्माण,
जीवन धन अनमोल भेटल अछि
कुटिल बनल नहि करी जियान।

तनया-तनुज दुहुक बनि स्नेही
होअए निर्वहन निज कर्तव्य,
कथनी-करनी में समता हो
क्षण-क्षण नहि बदली मंतव्य।

हम सुधरब तखनहि जग सुधरत
मनक क्षितिज में करब इजोर
तमस विषमता रहत कतहु नहि
सद्भावक आभा चहुओर।