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सन्नाटा / तरुण
Kavita Kosh से
कान में मेरे भर गया है-
एक अजीब ठंडा अँधेरा, गहरा सन्नाटा!
कीड़े-मकोड़े-उड़ाते से रहते हैं मेरे अस्तित्व की खिल्ली।
मेरे चारों ओर जमी लगती है-
बर्फ़ की एक मोटी-सी सिल्ली।
चाहे जितना चिल्लाओ, मुझे पिन चुभोओ,
मेरे जान कुछ भी होओ! मेरा कुछ नहीं बिगड़ता!
जापानी खिलौने सा-चाबी चलता हूँ!
हर चीज अब मुझे लगती है-लुढ़की, विकृत, औंधी
मुझे जाने कैसी-सी हो गई है-
चेतना की चुप्पी, मन का अँधेरा घुप्प, या आत्मा की रतौंधी!
1982