सपत्नी-भाव / सुजान-रसखान
सवैया
वा रसखानि गुनौं सुनि के हियरा अत टूक ह्वै फाटि गयौ है।
जानति हैं न कछू हम ह्याँ उनवाँ पढ़ि मंत्र कहा धौं दयौ है।
साँची कहैं जिय मैं निज जानि कै जानति हैं जस जैसो लयौ है।
लोग लुगाई सबै ब्रज माँहि कहैं हरि चेरी को चेरो भयो है।।243।।
जानै कहा हम मूढ़ सवै समझीन तबै जबहीं बनि आई।
सोचत हैं मन ही मन मैं अब कीजै कस बनियाँ जुगँवाई।।
नीचो भयौ ब्रज को सब सीस मलीन भई रसखानि दुहाई।
चेरी को चेटक देखहु ही हाई चेरो कियौ धौं कहा पढ़ि माई।।244।।
काइ सौं माई वह करियै सहियै सोई जो रसखान सहावैं।
नेय कहा जब और कियौं तब नाचियै सोई जौ नचावैं।
चाहत है हम और कहा सखि क्यों हू कहू पिय देखन पावैं।
चरियै सौं जगुपाल रच्यौ तौं भली ही सबै मिलि चेरी कहावें।।245।।
भेती जू पें कुबरी ह्याँ सखी भरी लातन मूका बकोटती लेती।
लेती निकारि हिये की सबै नक छेदि कौड़ी पिराइ कै देती।।
देती नचाइ कै नाच वा राँड कौं लाल रिझावन को फल सेती।
सेती सदाँ रसखानि लियें कुबरी के करेजनि सूलसी भेती।।246।।