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सपनों के रंगरेज / गीता शर्मा बित्थारिया

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स्त्रियों के
मन की खोह में रहते हैं
बहुत अलग अलग रंग के
पक्षियों के पंखों से सपनें
सपनों से भरी रहती हैं
उनकी आंखें
जो सपने वो देखती हैं
खुली आंखों से
सफेद भूरे मटमैले से
जिनमें वो भर देती हैं
अपने पसंद के रंग
कुछ कुछ हल्का गाढ़ा सा
इंद्रधनुष
तैरने लगता है वहां
सपनीली पनीली सी जमीं पर
उग आती है
हरी हरी दूब
उनके संकल्पों की
कह देती हैं वो
सबके समक्ष

जो सपने वो देखती हैं
जागी हुई
बन्द आंखो में
गाते गुनगुनाते
जब वो प्रेम में होती हैं
रंग बिरंगे फूलों से
खुशबू से महकते
दूर तलक फलक पर
छा जाता है
नीलवर्णी प्रकाश
जिन्हें वो साझा किया करती हैं
अपनी किसी अंतरंग सहेली /प्रेमी के साथ

जो सपने नींद में
उसका पीछा करते हुए
पहुंच जाते हैं
पलकों के कपाट खोल
उसकी सोयी अलासायी आंखो तक
गहरे गाढ़े रंग के होते हैं
जिनका श्रोता सिर्फ
उसका हृदय होता है

उनकी आंखें
खोजती रहती हैं
अपने मन के रंग महल में
घर आंगन में कोई ऐसा रंगरेज
जिसे अच्छे लगते हो
उसके सपनों का हर रंग
जो फीके पड़ते
उसके धूसर सपनों को
रंग दे किसी चटख शोख रंग से
ताकि वो उड़ सकें
अपने सपनों की राख से
पुनर्जीवन पाने वाले
अमर पंक्षी की तरह