भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सफर हमसफर / लोग ही चुनेंगे रंग
Kavita Kosh से
ऐसा ही होगा यह सफ़र
कभी साथ होंगे
कभी नहीं भी
रास्ते में पत्थर होंगे
पत्थरों पर सिर टिकाकर सोएँगे
होंगे नुकीले ही पत्थर ज़्यादा
पत्थरों पर ठोकर खा रोएँगे.
जो सहज है
वही यात्रा होगी जटिल कभी
जैसे स्पर्श होगा अकिंचन
बातें होंगी अनर्गल
उन सब बातों पर
जिन पर बातें होनी न थीं.
बातों के सिवा पास कुछ है भी नहीं
यह भी सच कि
दुनिया बातों से नहीं चलती
अमीर नहीं होते कला, साहित्य के गुणी.
फिर भी सफ़र में
गलती से आ ही जाता है वह पड़ाव
जब सोचते हैं
कि अब साथ ही चलेंगे
जब डर होता है
कि कभी बातें याद आएँगीं
और बातें करने वाले न होंगे
डर होता है
कभी सब जान कर भी
आँखें घूमेंगीं
ढूँढेंगीं हमसफ़र.