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सफ़र / रेणु हुसैन
Kavita Kosh से
माना कि बहुत मुश्किल है
किसी राह पर निकल पड़ना
माना कि बहुत मुश्किल है सफ़र
मुमकिन है कि खो ही जाऊं चलते-चलते
मगर निकल पड़ी हूं जब इस राह पर
तो खोज ही लूंगी कोई मंज़िल अपनी
मैं तुमसे सहारा क्यों माँगूं
माना कि बहुत मुश्किल है
जीवन जीना
अपनी ही शर्तों पर
माना कि मुमकिन है
सपनों का खो जाना
उम्मीदों का बिखर जाना
माना कि घर से बाहर
औरत का कोई घर नहीं होता
मगर मैं गढ़ लूंगी
अपने हाथों अपना जीवन
तुमसे रेत और पानी क्यों माँगूं
माना कि बहुत गहरा है अंधेरा
और आसमां पे कोई
सितारा भी नहीं है
मगर मैं हूं आसमान
और अपना सितारा खुद ही
मैं स्वयं ही ज्योति-पुंज हूं
मैं तुमसे चराग़ क्यों माँगूं