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सब एक जैसा / अमरजीत कौंके

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तेरी छुअन भी
अब मुझे शायद
सजीव न कर सके
अहल्या बन कर कोई
कितनी देर तक
इंतज़ार में
खड़ा रह सकता

तेरी उडीक करते करते
आँखों से इंतज़ार खत्म हो गया
छुअन को तरसते
पोर बेजान हो गये
एक संवेदनहीनता
सारे जिस्म में रच गई
कौन सा जिस्म
कौन सा चेहरा
अब सब
एक जैसा लगता

गर्मी-सर्दी
दुख-सुख
मोह-निर्मोह
सब एक जैसे लगते
बहारें गातीं
पतझडें आतीं
एक जैसी लगती

मुद्दत से तुम्हारा
स्पर्श ढूँढ़ते
पत्थर हो गया मन

अब भूल ही गया
कि मुहब्बत की छुअन
किसको कहते
प्यार की कंपकंपी
किसको बोलते।