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समय में सुरंग / दिनेश कुमार शुक्ल

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समय में सुरंग
गुप्त गोदावरी-सी
समय की अदृश्य नदी
लुप्त होती है
सुरंग में

पठारों और पर्वतमालाओं के
पेट में
चक्रिल आँतों की तरह
फैली है
दुर्गम सुरंग इतिहास की

आतंक और उल्लास की
आदिम अटवी के
गीले उमस भरे
अन्धकार में
सरकती चलती है
इतिहास की
सर्पिल सुरंग

जब तब वह
ताड़ के पेड़-सी
फनफना कर खड़ी
हो जाती है और
जंगल से निकलने का
रास्ता तलाशती है

दिखता नहीं
रास्ता, उलझे हुए
लगते हैं सारे तर्क, युक्ति
और समाधान

सारे कानून मान्यताएँ
सौन्दर्य के सारे मापदंड
और सारी दलीलें,
सुझाव, प्रस्ताव
सब एक ही पलड़े को
करते हैं भारी
कि जारी रहे
जो कुछ है जैसा है

पटकती है तब
अपना फन
इतिहास की सुरंग-
करती है जड़ता के
शिला शैल चूर-चूर
फोड़ती हुई अतल
घुस कर पाताल के गर्भ में
नहाती है
उबलती चट्टानों और
द्रवीभूत धातुओं के
महाकुंड में

और फिर
ब्रह्मांड को भेद कर
मेरे मस्तिष्क में
फट पड़ती है
हज्जारों सूर्यों-सी
आकाशगंगा-सी

रौशनी की बाढ़ में
दिखता है
सुरंग का पेट
-महाव्याल की उदर कन्दरा-
जहाँ चौंधिया कर
बेनकाब खड़ी हैं
भय से थर-थर काँपती
महाबली शासकों की
वंचक जमातें,
दिखते हैं उनके बनाए हुए
भ्रम के पाखंड के अज्ञान के
मकड़जाल,
दिखते हैं दूर तक बिखरे
मलबे सभ्यताओं के
और दिखती हैं
बलिदान के फास्फोरस से चमकती
मुक्तिकामी पूर्वजों की, साथियों की
अस्थियाँ-
दूर तक बिखरे हुए हैं
रौशनी के फूल
जिनको बीनते हैं हम

कौंधती है स्मृति में
दधीचि की कथा
और हम बनाते हैं
एक नया अस्थिवज्र
स्मृतियाँ-
जो कालव्याल के
फण की मणि हैं
जिनसे स्निग्धालोक बरसता
जो करता
पथ को आलोकित-
नये पुरानों के
बलिदानों की आभा में
पुनर्मुक्ति के लिए
आक्रमण की तैयारी
में जुट पड़ती है
अपनों की दुनिया सारी!