सम्बोधन / नीलेश रघुवंशी
आशा मिश्र के लिए
दर्द और राहत एक हो गए
चीख़ और कराह घुल-मिल गए
जन्म देने की प्रक्रिया पूरी हुई
सयानापन और सन्नाटा उठ खड़े हुए
रोने की पहली आवाज़ सुने बिना माँ बेसुध हुई
क्या हुआ, क्या हुआ की आकुलता इतनी भयानक कि
घर की स्त्रियों में ‘क्या हुआ’ को लेकर द्वन्द्व मच गया।
बूढ़ी सयानी दाई रो पड़ी
थरथराते हाथों से सर पर कलश रखते
देहरी पार की उसने
लड़के के जन्मने पर ‘जय श्री कृष्ण‘
लड़की के जन्मने पर ‘जय माता दी’
हर प्रसव के बाद इसी तरह बताना होता है
लड़का हुआ है कि लड़की हुई है।
कलश का पानी छलका
जिसने शब्दों और अर्थों को पानी-पानी कर दिया
देहरी पार कहती है दाई ‘‘जय माता दी
बरात द्वारे आई है बिठाना है कि लौटाना है’’
‘‘लौटाना है, लौटाना है जय माता दी’’
मद्विम स्वर में एक मत से बोल उठा समूह
‘‘हे देवी
हमारे यहाँ न पधारो, प्रस्थान करो, प्रस्थान करो’’
देव की पूजा, देवी से प्रार्थना
साधारण मानुष का जन्म लेते ही वध।
दाई ने सर पर रखे कलश को
पेड़ से टूटे पत्ते की तरह गाड़ दिया ज़मीन में
चान्द पेड़ की ओट में छिप गया
अन्धेरे का फ़ायदा उठाते अपने नवजात बच्चे को
दाँतों के बीच दबाए बिल्ली दबे पाँव निकल गई
माँ के कण्ठ से निकली रूलाई ने
प्रसव कक्ष में बिना तकिए के दम तोड़ दिया।
एक स्त्री ने स्त्री को जन्म दिया
स्त्री की स्त्री से नाल एक स्त्री ने काटी
एक स्त्री ने स्त्री को ज़मीन में गाड़ दिया
पितृसत्ता का कैसा भयानक कुचक्र कि
स्त्री ने ही स्त्री का समूल नाश किया।
यह किसी मध्ययुगीन नाटक का दृश्य नहीं
आधुनिक जीवन का दृश्य है
जिसमें आज भी निर्णायक पुरुष मूकदर्शक है।