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सम्मन गया है / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
'धूप में जब भी जले हैं पाँव'— सीना तन गया है
और आदमक़द हमारा जिस्म लोहा बन गया है
तन गई हैं रीढ़ जो मजबूर थीं ग़म से
हाथ बाग़ी हो गए चालाक मरहम से
अब न बहकाओ, छलावा, छलनियों में छन गया है
और आदमक़द हमारा जिस्म लोहा बन गया है
हम पसीने में नहाकर हो गए ताज़े
तोड़ने को बघनखों के बन्द दरवाज़े
आदमी की आबरू की ओर से सम्मन गया है
और आदमक़द हमारा जिस्म लोहा बन गया है।