भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सहारा देते रहो निरंतर / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


सहारा देते रहो निरंतर
प्रतिपल भाग रहे मन के अश्वों की रास पकड़ कर

अंग-अंग दुःख रहे हमारे
अविरत काल-शरों के मारे
कौन शरण अब सिवा तुम्हारे हे करुणा के सागर !

माना तुम भी बँधे स्वयम् से
कारण-कार्य, कर्म-फल-क्रम से
पर इस चिर-निरपेक्ष नियम से कुछ तो होगा बाहर !

जब हम लघु मानव भी भू पर
करते क्षमा दया से भर कर
सर्व-समर्थ तुम्हीं जगदीश्वर ! रह सकते साक्षी भर !

सहारा देते रहो निरंतर
प्रतिपल भाग रहे मन के अश्वों की रास पकड़ कर