साँझ-7 / जगदीश गुप्त
खो गया गगन पलकों में,
पुतली पर तम की छाया।
धीरे-धीरे नयनों के -
तारों में चाँद समाया।।९१र्।।
विधु को छूने के पहले,
पड़ी दृष्टि तारों पर।
पी सकी अमृत बेचारी,
पग रखकर अंगारों पर।।९२।।
अन्तर की तरलाई में,
तारक-समूह तिर आया।
पुतली के अतल तिमर पर,
छिव-छाया पथ की छाया।।९३।।
फिर तिमर-चिकुर चिर चंचल,
अंचल छू उठे दिशा का।
भर गया गगन-गंगा से,
सीमित सीमंत निशा का।।९४।।
विषमय विषाद में उरके,
डूबी है अमृत-कलाएँ।
उज्ज्वल मयंक के मुख पर,
काली कलंक-रेखाएँ।।९५।।
अगणित पिरवार व्यथा के,
मेरे प्राणों में पलते।
मैं मोमदीप हँू जिसके,
जलने से ?ाु निकलते।।९६।।
निदोर्ष निसगर्-निलय में,
चिर तिमर-ज्योति की माया।
तुम बढ़े दीप के आगे,
हो चली दीघर्तर छाया।।९७।।
रजनी-प्रकाश के मुख पर,
बदली ने अंचल डाला।
चाँदनी तिनक सकुचाई,
हो गया गगन कुछ काला।।९८।।
किरनो ने बादल-दल से,
जब आँख-मिचौनी खेली।
भावना मिलन की मन में
बन बैठी विरह-पहेली।।९९।।
मिलनातुर छाया पथ में,
गतिशील रजनि जब होती।
तब टूट-टूट अम्बर से,
गिरते तारों के मोती।।१००।।
उस दिन मैं नभ-गंगा के,
तट से निराश फिर आया।
उस दिन मैं शशि के मधुमय,
घट से निराश फिर आया।।१०१।।
लेकिन मेरे फिरते ही,
फिर गई नज़र अम्बर की,
सुख शरद-निशा के सिर से,
सारी तुषार की सरकी।।१०२।।
तारों की उज्ज्वल लिपि में,
निशि ने निज दुख लिख डाला।
पर मेरी दुख-लेखा का,
अक्षर-अक्षर है काला।।१०३।।
देखा है कोई सपना,
नभ की पलकें भारी हैं।
वह कौन बिंदु था जिससे,
तारावलियाँ हारी हैं।।१०४।।
वह कैसा आलिंगन था,
जिस पर ऊषा मुस्काई।
अधरों का छूना-छूना,
निशि ने हिमराशि लुटाई।।१०५।।