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सांगीतिक / विवेक निराला
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एक लम्बे आलाप में
कुछ ही स्वर थे
कुछ ही स्वर विलाप में भी थे
कुछ जन में
कुछ गवैये के मन में।
गायन एकल था
मगर रुदन सामूहिक था
आँखों की अपनी जुगलबन्दी थी
खयाल कुछ द्रुत था कुछ विलम्बित।
एक विचार था और वह
अपने निरर्थक होते जाने को ध्रुपद शैली में विस्तारित कर रहा था।
पूरी हवा में एक
अनसुना-सा तराना अपने पीछे
एक मुकम्मल अफ़साना छिपाए हुए था।
इस आलाप और विलाप के
बीचोबीच एक प्रलाप था।