भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सातम खण्‍ड / बैजू मिश्र 'देहाती'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सिया करथि लव-कुशक दुलार,
पाबथि उर अमियक सुख सार।
संगहि सिखाबथि लोकक रीति,
राज धर्म कुल धर्मक नीति।
ऋषिहुक मन उपजल तत मोह,
कत नित कर्मक रहनिने सोह।
ऋषि पत्नी सबहक अति नेह,
आश्रम लागए इन्द्रक गेह।
हर्षपुलक छल चारू कात,
लता विटप पशु पक्षीक गात।
दिन पर दिन बत्सर बितिगेल,
बालक द्वय किछु नमहर भेल।
ऋषी बराबथि शास्त्रक ज्ञान,
संगहि शस्त्रक अमित विधान।
देखि शस्त्र शास्त्रक बहुज्ञान,
वालमीकि मन हर्ष महान।
बालक द्वय पओलनि उत्कर्ष,
बीतल ताहि बीच दश वर्ष।
छला एक दिन रत अभ्यास,
रणहित कौशल जनित प्रयास।
तखनहि देखल बलगर अस्व,
पट लीखल बलकेर बर्चस्व।
बान्हि देलनि तरूमे लए आनि,
बालक द्वय घोटककें आनि।
रक्षक सैन्य भेला समवेत,
लखन भरत रिपुदमन समेत।
दूनू दलमे बजरल युद्ध,
देवासुर संग्राम विशुद्ध।
शत-शत वाणक चलल प्रहार,
वाण करए वाणक संहार।
युद्ध विशारद दूहू कात,
तदपि युद्ध केर भएगेल अंत।
लव-कुश सिद्ध भेला बलबंत,
सैन्य संग सभ अएला श्रीराम,
चढ़ल वाण धनुशोभा धाम।
सुरगण आबि गेला आकाश,
आइ धरणि करे हैत विनाश।
पीता पुत्रमे बजरत युद्ध,
जलथल नभ होयत अबरूद्ध।
हैत प्रलय निश्चय नहि आन,
आबने होयत आन विहान।
छला राम करलए कोदंड,
चढ़ल ताहि पर वाण प्रचंड।
लव-कुश हाथमे सेहो चाप,
प्रकट प्रलय जनु अपने उराप।
सीता आवि गेली तहि काल,
देखि दृश्य भएगेली बेहाल।
अनुशासल त्यागू सभ बैर,
पिता थिका पकरू द्वय पैर।
पिता पुत्रमे होमय युद्ध,
जगत कहत ई नीति बिरूद्ध।
खसला लवकुश धायलनि पैर,
रहलनि ने किछु ककरो मनवैर।
राम दूहूकें लेलनि उठाए,
अपन वक्षमे धएल सटाए।
राम-सियक सुख कहल ने जाए,
रंक मुदित जनु धन निधि पाए।
रामक नंयन हर्ष केर नोर,
सियो भए गेली नोरे झोरं
एतबा होइतहुँ राम उदाश,
चिंता उर कयने छल वास।
बूझि गेली सिय प्रिय उर बात,
लव कुशकें लए अएली कात।
कहल अमिय शीघ्रे बरसाउ,
मूर्छित सभकें शीघ्र जगाउ।
पालन कयल माय केर बात,
बरसि अमिय छूलक सभगात।
राम-राम कहि भेला सचेत,
लखन सहित सभ सैन्य समेत।
पुनि सभ मिलि कयल विचार,
सभ केओ चली अवध दरबार।
सिया संग मख हो सम्पन्न,
रहत ने मन साकेत विपन्न।
आबिगेला सभ मिलि साकेत,
राम सिया लव-कुशक समेत।
भेल यज्ञ विधिवत आरम्भ,
स्वर्ण जटित मण्डप ओ खम्भ।
नगर सजाओल गेल सुरम्य,
पुरवायिक उत्साह अदम्य।
सभकें हो जनु हमरे पर्व,
बूझि करै छल मनमे गर्व।
अइपन लीखल सबहक द्वार,
कलश दीप शोभित सुखसार।
इन्द्रपुरी छल भए गेल मात,
आइ आयोध्या केर लखि गात।
गुरू वशिष्ठ आदेशल राम,
आउ दहिन सीता लए वाम।
देथु परीक्षा सिय पुनि आइ,
राम कहल पुनि अनलमे जाइ।
लंकामे देखलक सभलोक,
सकितहुँमे रहइ ने टोक।
सुनिनहि सीता भेली उदाश,
आब उचित नहि धरती वास।
फाटू धरती पुनमति माय,
अपन अंकमे लिअ लगाय।
सुनि सिय वच भू दूदल भेल,
नभसँ सुमन बरसि तह गेल।
सिया देखाओल अपन चरित्र,
नारिक हित जग रहय पवित्र।
सभ क्यो कहिते रहला हाए,
सिया गेली धारतीमे समाए।
पतिव्रत धर्मक प्रबल प्रताप,
सिया देखौलनि तकरे नाप।
स्थापित कयलनि उच्चादर्श,
पाल करइछ भारत वर्ष।
बनल तकर फल देश महान,
जानए एकरा सकल जहान।