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साथी से / महेन्द्र भटनागर

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मिले हो आज जीवन की डगर पर
किंतु आगे साथ मेरा सह सकोगे क्या ?

अभी जीवन-निशा पहला प्रहर, तारे
गगन में आ, अनेकों आ, रहे हैं छा,
सघनतम आवरण छाया, नहीं दिखती
सफलता की प्रभाती की कहीं रेखा,
नहीं दिखता कहीं भी लक्ष्य का लघु
चिद्द, आँखों को यहाँ पर फाड़ कर देखा !

निराशा से बचा लोगे, सतत-गति,
लक्ष्य-उन्मुख प्रेरणा-स्वर कह सकोगे क्या ?

नहीं संदेह, प्राणों को यहाँ पाथेय,
साधन-हीन हो चलना असंभव है,
नहीं संदेह, दीपक को बिना लघु
स्नेह-बाती के कहीं जलना असंभव है,
नहीं संदेह, आँधी में भयावह
नाश का सामान हो पलना असंभव है !

तुम्हारे प्यार के बल पर चला हूँ,
पर, भला आगे सदय तुम रह सकोगे क्या ?

नहीं तो चल रहा हूँ मौन, जीवन-पंथ
पर आगे अकेला ही, अकेला ही,
नहीं तो चढ़ रहा हूँ पर्वतों को
आज मैं भागे अकेला ही, अकेला ही,
चला हूँ चीरता सागर-लहरियाँ
बाहुओं के बल, घिरी जब नाश बेला ही !

अभय वरदान देकर, मूक मन से
कह सकोगे यों, ‘नहीं तुम बह सकोगे !’ क्या ?
1949