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सापेक्ष / दिनेश कुमार शुक्ल

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पट पड़ी है फसल पटपड़ गंज
रौंदा पड़ा जीवन
जल रहे हैं पुस्तकालय
रात की लपटें अभी धुँधुआ रही हैं
घाव गहरे हैं सुबह की देह पर
गाड़ खँूटे आ चढ़ा है
एक आक्रान्ता नगर
दूर तक फैले हुए तम्बू-कनात
और रातों-रात सब कुछ खो गया है
जा रहे हैं लड़खड़ाते
शिल्पकार और बुनकर, बनिक
बंजारे, किसान
खींच सन्नाटा पड़ा है साँस साधे
जमुन-जल निष्प्राण, जा रहा है देश
छुपता-छुपाता कगारों के बीच
झुक गयी है कमर घायल पीठ
जिसकी चाम पर चाबुक से अपना नाम
लिख दिया था विजेता ने

झपट्टा मारती चीलों से बचता-बचाता
इतिहास-भाषा-अस्मिता-स्मृति बचाये
जा रहा है लाल गुदड़ी में छुपाये वो किसान
वही है हिन्दोस्तान
वही तुलसी सूर मीरा और कबीर
भक्ति आन्दोलन वही है
वही तो है सिख सतनामी मराठा जाट
वही भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम
वही गाँधी भगत सिंह सुभाष
उसी की पदचाप के आलोक में
टोहता है ढूँढ़ता है देश
अँधेरे में कहीं खोया हुआ पथ

तड़पता है देश-काल
मछली-सा विश्व-जाल में
इतिहास की किस भँवर में
भूगोल के किस देशान्तर में
दृष्टि के किस अक्षांश में
स्वार्थ के किस ऊर्ध्वाधर में
संवेदना के किस पाषाण युग में
कहाँ जा छुपा है सत्य
न्याय तुम्हें पुकारता हूँ मैं
करतोया के विलाप करते
रक्त-जल में
बाली के नील-समुद्र तट पर
वितस्ता की भयाकुल उपत्यका में
बामियान की ध्वस्त अभयमुद्रा में
मस्क्वा के मकतूल बच्चों की चीख़ में
सुनो! सुनो!
उपेक्षा के सापेक्ष मौन को सुनो
संसार के नित्य-उपेक्षित
आर्तनाद को सुनो
अपने ही देश में शरणार्थी शिविरों के
मौन धिक्कार को सुनो
कराहती गान्धार की कन्दराओं में
सुवास्तु की तलहटी में कलपती स्त्रियों की
आजादी की इच्छा को सुनो,
और देखो
इस सबको अनसुना करते
भारत के भयावह भद्रलोक को
पृथ्वी के महासंहारों पर पगुराते
इस महामहिष के
वेणु-संगीत-आस्वाद को सुनो
सुनो!
तटस्थता के भयानक मौन को

हे किसानों के वंशजो
हे गाँवों की सन्तानो
ओ वंचित बेरोज़गार बस्तियो
सापेक्षता के
इस उस्ताद डोमा जी को पहचानो
और जानो कि इतिहास के
किस भयावह कगार पर आ खड़े हो तुम!