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सारी धरती पर / आलोक श्रीवास्तव-२

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तुम एक लड़की थीं
सागर-तट के इस शहर में
वसंत की एक शाम जिससे मैं मिला था

मैंने कल्पना में किया तुमसे प्यार
अंतर्निहित तुम्हारे व्यक्तित्व को
अपने समूचे अस्तित्व से चाहा

अब तुम एक सपना हो
वह तुम, जो नहीं थीं,
पर जो तुम्हें होना था
वह तुम अब एक सपना हो
मेरे शब्दों का

अब दर्द नहीं है तुम्हें न पाने का
पर, एक चाह है,
इस सपने को
बिखरा दूँ बीजों की तरह
सारी धरती पर ।