सीता: एक नारी / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ 6 / प्रताप नारायण सिंह
था किन्तु अब भी लग रहा कि लखन हैं कुछ अनमने
थी चक्षु में निरपेक्षता, कुछ भाव मुख पर थे घने
शीतल समीरण बह रहा था सुरभि को भर अंग में
चहुँ ओर शोभित हो रहे थे सुमन दल बहु रंग में
मोहक बहुत तरु-शाख पर समवेत खग का चहकना
संज्ञान में पर थी नहीं, उनके प्रकृति-अभिव्यंजना
मैं जानती थी रोष उनका, और परिचित हास था
देखी हुई थी गर्जना, अज्ञात कब परिहास था
झुँझला उठे थे, शब्द कटु आघात जब मेरे किए
वन में कहा था राम के रक्षार्थ जाने के लिए
थी ज्ञात लक्ष्मण की मुझे तो शिष्टता, शालीनता
पर आज से पहले कभी लक्षित न थी यह मलिनता
मरघट बना मुख, मृत्यु जैसी शांति उस पर पल रही
ज्यों भावनाओं की निरन्तर अर्थियाँ हों जल रही
था दिवस के पूर्वान्ह तक भागीरथी तट आ गया
उस पार विस्तृत अति सघन वन हृदय को हर्षा गया
पावन मनोरम विपुल जल था सामने लहरा रहा
रथ से उतर हम मात-वंदन के लिए के लिए पहुँचे वहाँ
सौमित्र जब जल-पान करने को हुए तट पर खड़े
कुछ अश्रु-जल कातर नयन से गंग जल में चू पड़े