सुनो / अनुज लुगुन
माँ के वक्ष-सा
भू पर बिखरे पर्वत
आसमान को थाह लेने की आकांक्षा में
ज़मीन पर खड़े वृक्ष
धूप में सूखती नदी के गीले केश
पान कराते हैं जो दैनिक
चिड़ियों और जानवरों के आहट से संगीत
मूक खड़े कह रहे हैं
कातर दृष्टि से-
मत ललकारों हमें
मूक हैं किन्तु
अपना अधिकार मालूम है
जो भी प्रतिक्रिया होगी
वह प्रतिशोध नहीं
हक़ की लड़ाई होगी
क्यों तोड़ रहे हो
हमारे घरौन्दों को
हमें क्यों सिमटा कर रख देना चाहते हो
क्या ये जग केवल तुम्हारा है?
न तेरा न मेरा
हम दोनों का यह संसार
कुछ कहता हमसे मूक संसार।
संवेदन शून्य हम नहीं
हममें भी पीड़ा है
यह तुम्हारी विवेकता का प्रमाण नहीं
शान्त, निर्दोष को छेड़ते हो
हमें भी उन्मुक्त उड़ान की चाह है
जितना पर काटोगे
हम उतना ही फड़केंगे ।
सुधार लो अपना चाल-चलन व्यवहार
हमारे साथ खुद भी मिट जाओगे
न हो जंग आर-पार
कुछ कहता हमसे मूक संसार ।
परीक्षा उचित है किन्तु
अपनी सीमा में
हमारे धैर्य का बाँध जब टूटेगा
टूटेगा मानव तुमपर
टपदाओं का पहाड़
हाथ ऊपर उठेंगें
आँखें बन्द होंगी
किन्तु इस दिखावे से कुछ न होगा
पूजना हो तो
अपने अस्तित्व को पूजो
जो हमसे जुड़ा है।
बाँट लें आपस में प्यार
दोनों का यह अधिकार
कुछ कहता हमसे मूक संसार ।