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सुनो इस हवा को / दिलीप चित्रे
Kavita Kosh से
सुनो इस हवा को
हवा के विशाल पारदर्शी घोड़े पर सवार
आग के कलेजे में
हवाओं के चारों खुर गाड़ता
वह आ गया है
पहाड़ पर
पृथ्वी
सिर्फ़ एक क्षण की
विराम स्थली है उसकी
जिसे कोई पानी प्रतिबिम्बित नहीं करता
जिसे कोई आँख नहीं देख पाती
और जिसकी उपस्थिति
पर्वत-सी पतली है ।
सुनो इस हवा को !
यह पहाड़ के
उन्मत्त आनन्द में उठे
एक पंख की फड़फड़ाहट है ।