सुबह / बरीस पास्तेरनाक
जब तुम मेरे भाग्य की
सब कुछ बन चुकी थी
तभी युद्ध आया और उसकी विभिषिका
और फिर बहुत-बहुत समय तक
तुम्हारा कोई पता नहीं रहा
कोई ख़बर नहीं मिली तुम्हारी ।
फिर इन सारे वर्षों के बाद
आज तुम्हारी आवाज़
मुझे बेचैन करने लगी है
मैं सारी रात तुम्हारा वसीयतनामा पढ़ता रहा
मानों मैं बेहोशी से जग रहा था ।
मुझे लोगों के बीच
सुबह की आपाधापी में जैसे
हुजूम के बीच जाने की इच्छा हुई
जैसे मैं सभी चीज़ों को चूर-चूर कर दूँ
और तुम्हारे क़दमों पर झुकने को उद्धत होऊँ
और मैं दौड़ कर जीने से नीचे आया
जैसे मैं पहली बार बाहर आता होऊँ
इन वीरान फ़ुटपाथों वाली
बर्फ़ से ढकी सड़कों पर ।
चारों तरफ़ जैसे प्रकाश हो
घर जैसी सुविधा हो
लोग जैसे जग रहे हों
कुछ मिनटों की अवधि में
पहचान में नहीं आ रहा था सारा शहर ।
प्रवेश-द्वार के बाहर
घने गिरते तुहिन के जाल
बुन रहे थे झंझावात । सभी समय पर होने को भाग रहे थे
अधखाए भोजन और अधपीयी चाय छोड़कर ।
मैं उनमें से हर एक के लिए महसूस करता हूँ
जैसे उन सब
आवरण-त्वचा के नीचे मैं ही हूँ
मैं पिघलती बर्फ़ के संग पिघलता हूँ
सुबह पर मुझे गुस्सा है
अनाम ये सारे लोग मुझमें हैं
ये बच्चे, ये घरपसंद लोग, ये दरख़्त
इन सबके द्वारा मैं जीत लिया गया हूँ
और यही एकमात्र विजय है मेरी ।
अँग्रेज़ी भाषा से अनुवाद : अनुरंजन प्रसाद सिंह