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सुबह से शाम तक / केदारनाथ अग्रवाल
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सुबह से शाम तक
पानी की
प्रलम्ब प्रवाहित देह
प्रकाश-ही-प्रकाश पीती है
न रात में सोती-
न रोती है,
उच्छल तरंगित होती है;
न सूखी,
न रीती,
जीवंत जीती है।
केन है केन!
प्रवाहित प्यार की-
मेरी नदी केन,
मेरे आत्म-प्रसार की
मेरी नदी केन!
रचनाकाल: २२-१२-१९९०