भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुबह हो गई / शहनाज़ इमरानी
Kavita Kosh से
रात कहानी में सन्नाटा था
मेमना था, भेड़िया था
दिखाई देने के पीछे छिपी
काली मुस्कुराहट थी
भेड़िये का छल-कपट था
मक्कारी थी, अत्याचार था
और बच निकलने कि होशियारी थी
मेमने की मौत बाद
आया था डर
सुरक्षा का कवच लिए
हर अन्याय के सामने
चुप रहने का कलंक लिए
रात का सर झुका हुआ
पूरब से सूरज निकलता हुआ
क्या सुबह हो गई थी?