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सूखा-बाढ़ / गुलाब सिंह

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आँधी के पत्तों-से काँपे अधर
रात गहराई
हाथों में नम हुई
एक तीली की दिया सलाई।

आई बाढ़ चढ़े पेड़ों पर
बाँधे खाट-खटोले,
सिर पर उड़े जहाज
पाँव के नीचे अजगर डोले,

माटी की ललछौंह बहे
ज्यों धोये हाथ कसाई।

जुड़े-कटे अंगों-से बिखरे
खेत-मेड़ घर-डीहे,
चमके धूप गड़ाँस सरीखी
बादल लगते ठीहे,

छाती धरे पहाड़ गाँव ने
गीली पलक उठाई।

आधी देह आग में झौंसी
कीचड़ सड़ती आधी,
सूखा-बाढ़ द्वैत में जन्मा
मरा साधु अपराधी,

एक-एक दिन जिया
न्याय की तुला-चढ़ी तनहाई।