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सृजनपूर्व मनःस्थितियां / बालस्वरूप राही

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बुझा बुझा मन
थका थका तन: भटका हूँ मैं कहां-कहां

किसने दी आवाज़ मुझे
मैं खिंच चला आया पीछे
जैसे डोर किसी बंसी की मछली को ऊपर खींचे।

यह अबूझ बेनाम उदासी
यह तन से निर्वासित मन
ये संदर्भहीन पीड़ाएं: द्दपन में विम्बित दर्पण।

किसी हृदय में
किसी नज़र में खटका हूँ मैं कहां कहां

कितना विस्मय है
अपने में ही सीमित रह जाने में
जैसे दिया लिए हाथों में उतर रहा तहखाने में।

नंगे पांव
झुलसते में निर्झर का अन्वेषण
आह! सृजन से पूर्व मनःस्थितियों के
दुर्निवार ये क्षण।

कभी भाव पर
कभी बिम्ब पर अटका हूँ मैं कहां कहां।