भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सॉनेट (इकलौता तारा) / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
इकलौता तारा जलता पश्चि‍मी क्षि‍तिज पर
डूब अभी जाएगा क्षण में, मानस पट पर।
उग आएगा तब वह और प्रज्वलित होकर
दिप - दिप करता हुआ जलेगा, इत - उत फिरता
हुआ अंत में वो थि‍र होगा उर में मेरी
आंखें बन कर । अंतस को मेरे भर देगा
मधुर ज्वाल से और काल से , टक्कर लेगा
डटकर, रह जाएंगी उसकी आंखें फटकर ।

काल ढाल है चुके हुओं का झुके हुओं का
जो जीवन रण छोड चुके मोड चुके हैं मुख
सकाल से । पर जिनकी सुबहें नहीं भरोसे
किसी सूर्य के, कहीं किसी इकतारे की
धुंधली धुन पर, चलते - रहते हल्की सी
भीगी उजास में आस छिपाए विलम-विलम कर।

1999