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सोच रहा हूँ / देवेन्द्र कुमार

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सोच रहा हूँ
लगता है जैसे साए में अपना ही
गला दबोच रहा हूँ ।

एक नदी
उठते सवाल-सी
कन्धों पर
है झुकी डाल-सी
अपने ही नाख़ूनों से अपनी ही
देह खरोंच रहा हूँ ।

दूर दरख़्तों का
छा जाना
अपने में कुआँ
हो जाना
मुँह पर घिरे अन्धेरे को
बन्दर-हाथों से नोच रहा हूँ ।