भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्मृति / आभा पूर्वे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अग्नि
बुझी
शेष रह गई
सिर्फ मुट्ठी भर
राख।
र्मैं खुश थी कि
चलो आग राख तो हुई
इसी खुशी में
मैंने राख को
हाथ से चाहा था
उलीच देना
कि तभी
फिर
सुलग उठी अग्नि
आकाश को छूने लगी ।