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हँसी / सरोज परमार
Kavita Kosh से
उन्होंने मुँह का कौर छीना
तुम हँस पड़े
उन्होंने तन के कपड़े नोचे
तुम हँस पड़े
पेट -पीठ की चमड़े कोंची
तुम हँस पड़े
पाँव में फफोले दि्ये
माथे पर गुम्मट दिये
छाती में भरी विषैली साँस
दिमागों में दुर्मुट दिये
तुम हँसते रहे,तुम हँसते रहे.
वे बौखला उठे
गोलियों से बींध गया वक्ष
तुम रक्त-बीज बन गए
सहस्रों होंठों से हँस दिए
तुम्हारे होंठ सिल दिए गए
तो रोम-रोम हँसने लगा
तुम्हारी हँसी चौंलोक लाँघ गई.
वे खिसिया रहे हैं
वे रिरिया रहे हैं
पर तुम हँस रहे हो.
उनकी ज़मीन धँस रही है
आसमान हिल रहा है
पर तुम हँस रहे हो
आख़िर वो तुम्हारी ज़मीन पर
आ ही गए
तुम उनको भी हँसा रहे हो
सरल सहल निश्छल हँसी.