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हज़ार-हज़ार साल / जीवनानंद दास
Kavita Kosh से
समय के अँधेरे में, जुगुनुओं की तरह करते
हैं खेल हज़ार-हज़ार साल ।
पिरामिड हैं चारों ओर —
रेत के ऊपर बिछी है चान्दनी मौन;
स्थिर है खजूर के पेड़ों की छाया; स्तम्भ
किसी ढहे साम्राज्य के, जीर्ण, मृत,
रखे हैं थाम सन्नाटे ने जैसे ।
बुझ गई हैं आवाज़ें दुनिया की ।
लिपटे हैं शरीर मृत्यु की नींद में हमारे;
हवा में छिपी है मृत्युगन्ध ।
एक हलकी सरसराहट के बीच
पूछती है आवाज़ एक :
’याद है ?’
’क्या बनलता सेन ?’ कहता हूँ मैं ।
(यह कविता 'महापृथिवी' संग्रह से)