हदें नहीं होती जनपथ की/ हरीश भादानी
हदें नहीं होती जनपथ की
वह तो बस लाँघे ही जाए.....
एकल सीध चले चौगानों
चाहे जहाँ ठिकाना रचले
अपनी मरजी के औघड़ को
रोका चाहे कोई दम्भी
चिरता जाए दो फाँकों में
ज्यों जहाज़, दरिया का पानी
इससे कट कर बने गली ही
कहदे कोई भले राजपथ
इससे दस पग भर ही आगे
दिख जाए है ऊभी पाई ।
आर-पारती दिखे कभी तो
वह भी तो कोरा पिछवाड़ा
इन दो छोरों बीच बनी है
दीवारों की भूल भूलैया
इनसे जुड़-जुड़कर जड़ जाएँ
भीम पिरालें, हाथी पोलें
ये गढ़-कोटे ही कहलाए
अब ‘तिमूरती’ या ‘दस नम्बर’
इनमें सूरज घुसे पूछ कर,
पहरेदार हवा के ऊपर,
खास मुनादी फिरे घूमती
कोसों दूर रहे कोलाहल
ऐसे अजब घरों में जी-जी
आखिर मरें बिलों में जाकर
जो इतना-सा रहा राजपथ
उसकी रही यही भर गाथा
आँखों वाले सूरदास जी
कुछ तो सीखें इस बीती से
पोल नहीं तो खिड़क खोल कर
अरू-भरू होलें जो पल भर
दिख जाए वह अमर चलारू
चाले अपना जनपथ साधे !
हदें नहीं होती जनपथ की
वह तो बस लाँघे ही लाँघे !
जनपथ जाने तुम वो ही हो
सोच वही, आदत भी वो ही
यह तो अपने अथ जैसा ही
तुम ही चोला बदला करते
लोकराज का जाप-जापते
करो राजपथ पर बटमारी
इसका नाभिकुंड गहरा है
सुनो न समझो, गूँजे ही है
लोकराज कत्तई नहीं वह
देह धँसे कुर्सी में जाकर
राज नहीं है काग़ज़ ऊपर
एक हाथ से चिड़ी बिठाना
राज नहीं आपात काल भी
किसी हरी का नहीं की रतन
विज्ञानी जन सुन लेता है
यन्त्रों तक की कानाफूसी
‘रा’ रचता है कौन कहाँ पर
क्यों छपता है ‘राम’ ईंट पर
सजवाते रहते आँगन में
पाँचे बरस चुनावी मेला
झप-दिपते, झप-दिपते में यह
खुद को देखे, तुझको देखे
भरी जेब से देखे जाते
झोलीवाला पोंछा, पुरजा
कल तक जो केवल चीजें थी
आदमकद हो गई आज वे
चार दशक की पड़ी सामने
संसद में सपनों की कतरन
अब तो ये केवल दरजी हो
अपनी कैंची, सूई, धागा
लो अब तुम ही देखे जाओ
कैसे काट, उधेड़ें, साधे ?
हदें नहीं होती जनपथ की
वह तो बस लाँघे ही लाँधे !