भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमर आंगन सून छै / नरेश कुमार विकल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आइ गगन मे चान उगल छथि,
हमर आंगन सून छै।
सबहक आंगन ऐपन सेनुर
हमरा कारिख चून छै।

पात-पात मोती ओंगघराएल
चकमक चारू कोर छै।
सबहक आंचर दूभि-धान,
आ’ हमरा आंचर नोर छै।

सबहक जीवन मे आकर्षण
हमरा लागल घुन छै।
सबहक आंगन ऐपन सेनुर
हमरा कारिख चून छै।

हँसै कुमुदिनी-तीरा-जूही
बिहुँसय कमलक पात छै।
हमरा माथा चढ़ल किऐ
शनिक साढ़े सात छै।

सभ कें मीठ मलाई, हमरा
रोटी पर ने नून छै।
सबहक आंगन ऐपन सेनुर
हमरा कारिख चून छै।

पात-बतासा आर मखानक
सभ ठाम एकरे सोर छै।
हमर विधाता वाम भेल छथि
चलै न कोनो जोर छै।

हमरा लेल आइ कोजागरा
बिना छन्द केर धून छै।
सबहक आंगन ऐपन सेनुर
हमरा कालिख चून छै।