हमारा तुम्हारा प्रणय / अज्ञेय
मेरा-तुम्हारा प्रणय इस जीवन की सीमाओं से बँधा नहीं है।
इस जीवन को मैं पहले धारण कर चुका हूँ।
पढ़ते-पढ़ते, बैठे-बैठे, सोते हुए एकाएक जाग कर,
जब भी तुम्हारी कल्पना करता हूँ,
मेरे अन्दर कहीं बहुत-से बन्ध टूट जाते हैं,
एक निर्बाध प्रवाह मुझे कहीं बहा ले जाता है,
मेरे आस-पास का प्रदेश, व्यक्ति, सब कुछ बदल जाता है;
मैं स्वयं भिन्न रूप धारण कर लेता हूँ।
पर ऐसा होते हुए भी जान पड़ता है,
मैं अपना ही कोई पूर्वरूप,
कोई घनीभूत रूप हूँ।
और तुम, उस पूर्व जन्म में भी
मेरे जीवन-वृत्त का केन्द्र होती हो।
चिरप्रेयसि! पुनर्जन्म असम्भव है।
और सम्भव भी हो, तो यह स्मृति कैसी?
किन्तु इस तर्क से मेरी अन्तर्दृष्टि पर
मोह का आवरण नहीं पड़ता।
मैं फिर भी अपने पूर्व जन्म का दृश्य
स्पष्ट देख पाता हूँ।
मैं देखता हूँ,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी हो।
इतना ही नहीं,
मैं इस से भी आगे देख सकता हूँ।
प्रत्येक जीवन में तुम आती हो,
एक अप्राप्य निधि की तरह
मेरी आँखों के आगे नाच जाती हो,
और फिर लुप्त हो जाती हो-
मैं कभी तुम्हें पहुँच नहीं पाता।
मैं जन्म-जन्मान्तर की अपूर्ण तृष्णा हूँ,
तुम उस की असम्भव पूर्ति।
इस तृष्णा और तृप्ति का कहाँ मिलन होगा,
कहाँ एक-दूसरे में समाहित हो जाएँगी,
यह मैं नहीं जानता,
न जानने की इच्छा ही करता हूँ।
इस तृष्णा में ही इतना घना जीवन भरा पड़ा है
कि और किसी चाह के लिए स्थान ही नहीं रहता!
केवल यह बात मन में कौंध जाती है
कि शायद यह एकीकरण कभी नहीं होगा।
दिल्ली जेल, 29 जून 1932