भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमारी नाव / नरेन्द्र जैन
Kavita Kosh से
ये भाषा की थकान का दौर है
विचार और स्वप्न की मृत्यु
यहीं से शुरू होती है
कविता जैसी भी है जहाँ भी है
जितनी भी है
बस डूबी है अन्धकार में
सम्वाद आधे-अधूरे
गिरते लडख़ड़ाते हाँफते
बस, थोड़ा सा संगीत है कहीं
जाने कैसे वो भी बचा हुआ है निर्जन में
उसी किनारे बंधी है
हमारी जर्जर नाव