भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम जिये / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लौटे तो लौट चले
पाँव-पाँव, मन को यहीं
इसी देहरी पर छोड़ चले
जीवन भर उड़ा किये
ले सपना-‘वह अपना है’,
उसी की छाँव तले
उस को ही सौंप दिये
पांख आज।
तड़पे।
फिर कौंध-सी में
जाना, यह लाज
भी उसी से है-
यह भी उसी को दी।
रह गयी चौंध एक
जिस में सब सिमट गया!
वही बस साथ लिये,
हार दाँव,
हम जैसा भी
जिये जिये!

नयी दिल्ली, 6 अप्रैल, 1980