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हम लड़कियाँ / रूपम मिश्र

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हम गाँव के बड़के घर की बेटियाँ थीं !
ये हमने गाँव में ही सुना !

हम बांस की तरह रोज़ बढ़ जाते
और ककड़ियों की तरह सबकी निगाह में आ जाते,
हम दुपट्टे की आलपिन खो जाने पर
रोते हुए स्कूल जाते थे,
हम गाँधी और नेहरू को
पापा-भइया से महान नहीं समझते थे !

हमें अधिकार का पर्यायवाची कर्तव्य बताया गया,
हमने साहस की जगह हमेशा डर पढ़ा,
स्कूल की वाद -विवाद प्रतियोगिता में
हमने कभी भाग नहीं लिया
क्योंकि दादी कहतीं —
मुँहजोरी भले घर की लड़कियों के लक्षन नहीं ।
हमें हमेशा बोलना नहीं सुनना सिखाया गया
और तोते की तरह रटाए गए कुछ अति विनीत शब्द
जो गर्दन को और झुका प्रतीत कराते ।
 
हमने स्कूल की प्रार्थना — वह शक्ति हमे दो दया निधे ! ख़ूब गाई थी
और पहला पीरियड्स आने पर हैरान होकर ख़ूब रोए थे ।
हम किताब वाली कोठरी में
पढ़ने की बड़ी मेज़ से किताब लेकर
कई बार उठाए गए
कि भाइयों की पढ़ाई डिस्टर्ब होगी ।

हम जितनी तल्लीनता से उन्नीस का पहाड़ा गिनते
दादी उतनी चिन्ता से हमारे ब्याह के दिन गिनती,
हमारे चारों तरफ एक ख़ाका खींचा गया
कि पुरुषों के सामने सिर और नज़र उठाना व्याभिचार है ।

हम तीन पीढ़ी पर डगमग चल रहे थे !
दादी को लगता हम इतना क्यों बढ़ रहे हैं
माँ ज़रूर हमें चोरी से ख़ूब घी खिला रही है !
माँ को एक आश्चर्य हमेशा रहा
कि हम इतने कमजोर क्यों हैं !

दादी एक बात गुस्से से हमेशा कहतीं
महतारी की बनाईं हुई हो तुम सब
यही एक बात दादी की एकदम सत्य रही
डरना ! झुकना ! विरोध न करना !

सच में, हम माँ के बनाये मिट्टी के खिलौने थे ।