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हरफ़ों के पुल / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
रच लें फिर
और-और हरफ़ों के पुल
एक-एक पांव तले
एक-एक द्वीप
आगे है ठरी हुई
काई की झील
गहराये बीच
चौड़ाये पाट
रच लें फिर
और-और हरफ़ों के पुल
आस-पास अलग अलग
थके-थके शरीर
झाग हुआ निकले है
भीतर का शोर
चेहरों पर रिसती है पीर
आंखों में प्रश्नों की धुन्ध
रच लें फिर
और-और हरफ़ों के पुल
लांघ-लांघ जाता हूं
सूरज की ओर
खीज-खीज उझकता हूं
तानता हूं हाथ
बंध जाएं शायद
एक-एक मुट्ठी में
किरणों के
कई-कई बांस
पांवों से तट तक
उग आए
पथरीले द्वीपों पर
बांसों के पुल
रच लें फिर
और-और हरफ़ों के पुल