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हवस का पारा / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
कहीं डरी है
चिड़िया, चुनमुन
और कहीं तितली घायल है
घुँघरू
भी आवाज़ न कर दें
डरी-डरी पथ पर पायल है
चारों ओर
कुहासा फैला
दिन में भी फैला अँधियारा
बढ़ जाता है
अँधियारे में
अक्सर यहाँ हवस का पारा
ऊपर-ऊपर
शहर दूर तक
भीतर-भीतर इक जंगल है
सभ्य घरों के
खिड़की, परदे
ढाँप रहे हैं अपना ही सच
छोटी-छोटी
कलियाँ भी अब
सीख रही हैं क्या है गुड टच
बेहद अपनों के
शरीर में
छिपकर बैठ गया क्यों खल है
कितने सपने,
कितने जीवन,
कितनों का विश्वास निगलकर
इस वहशीपन
ने डर बोया
युग बीते, यह बढ़ा निरंतर
कुछ भी
बदल नहीं पाये हम
क्यों प्रतिरोध खड़ा निर्बल है?