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हाँ सच है / ज्योत्स्ना मिश्रा

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हाँ सच है
मै उस वक्त नहीं बोली
बस अपनी तेरह साल की बेटी को
कलेजे से लगा, आँचल में छिपा
बैठी रही।
कुछ भी नहीं बोली,
किसी और की तेरह साल की बेटी के लिए ।
क्या कहती, और क्यों?
मुझे इस तरह मत देखो
जैसे मैं कटघरे में खड़ी मुजरिम हूँ
देखो मैने कभी भी कुछ नहीं कहा
तब भी नहीं जब
मै खुद तेरह की थी
और चलती सड़क पर मेरी चुन्नी खींच कर कहा गया
साली टैक्सी है
भले ही उस वक्त मुझे इस बात का मतलब नहीं मालूम था
पर मालूम था कि ये सुनकर मुझे चुप रहना है
कुछ नहीं कहना है

जब पति ने कामवाली के
झुके तन पर बुरी नजर डाल
मुस्कुरा के उछाला वह गन्दा जुमला
जी में आई कह दूं ये छातियाँ तुम्हारी उत्तेजना का कारण बनने के लिए नहीं
घर पर छूटे दुधमुँहे के खयाल से उमड़ रहीं हैं
पर नहीं बोली।
तब भी नहीं, जब देवर ने
छोड़ दी, गर्भवती गर्लफ्रेंड
कहकर कि जब मेरे साथ तैयार हो गयी तो क्या पता कितनों के तन लगी
आक थू!

देखती रही तब भी चुपचाप
बोली तब भी नहीं
जब भाई ने उठाया भाभी पर हाथ ।
पहली बार,
फिर दूसरी तीसरी,
बार बार।
गिरवायीं बार-बार बेटियाँ,
जाती रही मैं साथ भाभी के
तीमारदारी करने, मुर्दा औरत की ।

और इस तरह मैं चुप रहते-रहते आदी हो गयी चुप रहने की
तो फिर कहो कैसे बोलती
बुलन्दशहर पर
किस हक़ से?
तेरह साल की बेटी की माँ नहीं बोलती कुछ
बस रोती है
चीखती है
तड़पती है
पर आवाज
नहीं होती
लिखती है
सारा इतिहास
सारा वर्तमान
सारा भविष्य
कलेजे में चुपचाप
बिन अक्षर
जाहिल औरत
कहीं की