हिन्दी के लेखक के घर / ज्ञानेन्द्रपति
न हो नगदी कुछ खास
न हो बैंक-बैलेंस भरोसेमन्द
हिन्दी के लेखक के घर, लेकिन
शाल-दुशालों का
जमा हो ही जाता है जखीरा
सूखा-सूखी सम्मानित होने के अवसर आते ही रहते हैं
(और कुछ नहीं तो हिन्दी-दिवस के सालाना मौके पर ही)
पुष्प-गुच्छ को आगे किए आते ही रहते हैं दुशाले
महत्व-कातर महामहिम अँगुलियों से उढ़ाए जाते सश्रद्ध
धीरे-धीरे कपड़ों की अलमारी में उठ आती है एक टेकरी दुशालों की
हिन्दी के लेखक के घर
शिशिर की जड़ाती रात में
जब लोगों को कनटोप पहनाती घूमती है शीतलहर
शहर की सड़कों पर
शून्य के आसपास गिर चुका होता है तापमान, मानवीयता के साथ मौसम का भी
हाशिए की किकुड़ियाई अधनंगी ज़िन्दगी के सामने से
निकलता हुआ लौटता है लेखक
सही-साबुत
और कन्धों पर से नर्म-गर्म दुशाले को उतार, एहतियात से चपत
दुशालों की उस टेकरी पर लिटाते हुए
ख़ुद को ही कहता है मन-ही-मन हिन्दी का लेखक
कि वह अधपागल 'निराला' नहीं है बीते ज़माने का
और उसकी ताईद में बज उठती है सेल-फ़ोन की घण्टी
उसकी छाती पर
गरूर और ग्लानि के मिले-जुले अजीबोगरीब एक लम्हे की दलदल से
उसे उबारती हुई