भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

— के लिए / प्रकाश मनु

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रूखा कुछ-कुछ गुट्ठिल चेहरा
कठिन लकड़ी-सा
आंखों के नीचे हलकी झुरझुराहट-सी
(किसी दुखी क्षण में देखा
तो नजर आई सहसा।)
खाल नहीं अब चिकनी-न वो
स्निग्धता
गाल पर
पर मुझे पसंद हो, बहुत ही पसंद हो तुम।

मेरी कविताई सनक के लिए
तुमने मिटा ही डाली अपनी हस्ती
मिटा दिया वजूद
और जमाने में सनक भी तो
कैसी सनक।
कि हर चीज की बोली लगती हो जहां
वहां रचना....
बिक भी जाती अगर होती झुनझुना।।
...यों साहित्य-फाहित्य से होता क्या है
आज के जमाने में

गर रह गए आप फचीटर।

...तो मेरी कविताई सनक
नहीं नहीं नहीं....सनकाई कविता के
क्रोध क्रोध क्रोध
सत्य शोध में
तुम तपीं
तुम जलीं
तुम हुई क्षार....
आहुति दे डाली रस-रत्न सुख-भार की
भस्म कोमलता का सारा रूप-रस वेष्ठित आगार।।

इसीलिए पुनीते-सोते-
ओर गैरिक वस्त्रे।
जगदम्बा-सी ओ पापहरा धरित्री
मुझ अभागे सत्यवान की सावित्री...
पसंद हो
-बहुत बहुत पसंद हो तुम मुझे
रची हो रोम-रोम में
अंतर में-
श्वास की तरह
हवा, पानी और आकाश की तरह।

सामने चाहे कुछ न कहूं
(चुप-चुप दहूं ।)
पर अकेले में चुपचाप कर लिया
करता हूं नमन मैं ....

तुमसे जीवन लिया है
यह कभी नहीं भूला मैं
वासना कितनी ही उद्दाम हो
गर्व में नहीं फूला मैं

अभी तो तुम्हारी छाया में दूऽऽऽर तलक चलना है।