भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

369 / हीर / वारिस शाह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हीर आखया जोगीया झूठ आखें कौन रूठड़े यार मनावंदा ए
ऐसा कोई ना डिट्ठा मैं ढूंड़ थकी जेहड़ा गयां नूं मोड़ लिआवंदा ए
साडे चम्म दियां जुतियां करे कोई जेहड़ा जिऊ दा रोग गवावंदा ए
भला दस खां चिरी विछुंनयां नूं कदों रब्ब सचा घरीं लिआवंदा ए
भला मोए ते विछड़े कौन मेले ऐवें जीवड़ा लोक वलावंदा ए
इक बाज तों काउं ने कूंज खोही वेखो चुप है के कुरलावंदा ए
इक जट दे खेत नूं अग लगी वेखां आन के कदों बुझावंदा ए
देवां चूरियां घेउ दे बाल दीवे वारस शाह जे सुनां मैं आवंदा ए

शब्दार्थ
<references/>